स्थानीय रीति-रिवाज और परंपराए आधुनिकता का बनी शिकार, स्थानीय अर्थव्यवस्था को मजबूत बनाने करनी होगी पहल - newswitnessindia

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Friday, August 27, 2021

स्थानीय रीति-रिवाज और परंपराए आधुनिकता का बनी शिकार, स्थानीय अर्थव्यवस्था को मजबूत बनाने करनी होगी पहल

मण्डला - आदिवासियों के पर्व, त्यौहार, रीति-रिवाज सहित विभिन्न परंपराओं व संस्कृति को कायम रखने की पहल करनी अब जरूरत है। स्थानीय अर्थव्यवस्था को बनाए रखने के लिए किसी भी जिले या राज्य को अपनी संस्कृति व परंपराओं पर गर्व होता है। मंडला जिले में  सदियों से आदिवासी संस्कृति व कई परंपराओं का धरातल रहा है। लेकिन प्राचीन से चली आ रही भारतीय संस्कृति व पुरातन परंपराओं पर आधुनिकता के प्रभाव को नकारा नहीं जा सकता। आधुनिकता का प्रभाव इस कदर हावी हो रहा है कि लोगों की पारंपरिक जीवनशैली, व्यवहार, विचार, आपसी सौहार्द और कई पारंपरिक उसूलों में बदलाव हो चुका है। शहरों से लेकर गांव, कस्बों तक शायद ही कोई क्षेत्र बचा हो जहां आधुनिकता के खुमार ने भारतीय संस्कृति व परंपराओं को अपनी जद में न लिया हो। परंपरागत कृषि पद्धति, कृषि बीज, पारंपरिक पशुधन, पारंपरिक रीति-रिवाज, त्यौहार, पर्व, रहन-सहन, वेशभूषा से लेकर पारंपरिक शिक्षा पद्धति तक पश्चिमी संस्कृति का प्रभाव बढ़ रहा है। पारंपरिक खानपान में गुणवत्तायुक्त देशी अनाजों की जगह विदेशी जंक व फास्ट फूड शामिल हो रहे हैं। विवाह समारोहों के पारंपरिक रीति-रिवाज, लोकगीत व कई स्थानीय भाषाएं एक खास दायरे में सिमट कर रह गई है। 

जानकारी अनुसार समाज अपने स्थानीय रीति-रिवाजों, परंपरा और अर्थव्यवस्था के साथ विकसित हुए जो समाज प्रभावित करते हैं और विभिन्न तरीकों से प्रभावित होते हैं। वहीं ग्रामीण अर्थव्यवस्था में लेन-देन  समग्र और मानवीय होने के अलावा सभी के लिए एक मुफ्त सवारी है, जिससे हर कारीगर, हस्तशिल्प, वनवासी और किसान लाभान्वित हो सकें। गांधीवादी विचारधारा भी इसी सोच की पैरवी  करती हैं। करीब चार दशक पहले यह एक सामान्य बात थी कि लौहार, कुम्हार, हस्तशिल्प और अन्य लोग अपने उत्पादों, उपज को नगद या अन्य कृषि उपज के बदले में बेचते थे। सभी की अपनी सुरक्षित आजीविका थी और एक समृद्ध ग्रामीण अर्थव्यवस्था थी। ये अर्थव्यवस्थाएं स्थानीय हुनर, उत्पादन, परंपरा और रीति-रिवाजों पर आधारित थीं। अर्थव्यवस्था के स्थानीय क्षेत्र की हमारी सदियों पुरानी परंपरा को फिर से बनाने के लिए लोगो को जागरूक करना और जन सहभागिता एक कारगर तरीका हो सकता हैं। यह एक लहर पैदा करता है। यह सांस्कृतिक विविधता के साथ सोचने और जुडऩे, आहार को पुन: प्राप्त करने, अपनेपन की भावना, गर्व की भावनाओं को अलग-अलग आयाम देता है और बाजार को अधिक अनुकूल बनाता है।

स्थानीय रोजगार पर्यावरण के लिए अनुकूल : 

बता दे कि वक्त के साथ धीरे-धीरे समय बीतता गया, बाहरी बाजार ने हमारे स्थानीय बाजार में हस्तक्षेप किया। उद्योगपति, पूंजीपति, व्यापारी और कारखाने धीरे-धीरे हमारे जीवन में प्रवेश करते गए, उनका लक्ष्य ग्रामीण बाजार को हासिल करना था क्योंकि भारत के दो तिहाई से अधिक लोग यहां रहते हैं। स्थानीय बाजार में सस्ते दामों वाले नए उत्पादों की बाढ़ आ गई, साथ ही फैंसी विज्ञापन और अन्य व्यापारिक उद्योग भी बढ़ गए है। वहीं एक दूसरे पर हमारी निर्भरता, सामाजिक ताने-बाने और स्थानीय रीति-रिवाज और परंपराएं इस प्रक्रिया में शिकार बन रही है। मिट्टी के बर्तन, बांस की टोकरी और पत्ती की प्लेटों की जगह प्लास्टिक और एल्युमीनियम ने ले ली है। खादी, कपास और अन्य बुनकर अपने अस्तित्व के लिए संघर्ष कर रहे हैं। इसने स्थानीय खाद्य को भी नष्ट कर दिया। हमारी पारंपरिक खाद्य सेवन पर व्यापक प्रभाव पड़ा,उसका उपभोग कम हो गया। पोषक खाद्य कम हो गया, गाँव की उपज को उचित बाजार नहीं मिला, कारखाने के उत्पादों के लिए दीवानगी ने ध्यान आकर्षित किया। वहीं मंडला में लोग विभिन्न व्यंजनों के लिए महुआ खा रहे थे, बरसात के मौसम में भुना हुआ महुआ  शरीर को गर्म रखता था, कोदो, कुटकी के साथ उड़द की दाल का सेवन का प्रचलन था। शादी ब्याह और अन्य कार्यक्रम में हम लोग स्थानीय पत्तों से निर्मित दोना पत्तल में भोज करते थे। ये चीजें आजकल देखने को नहीं मिलती हैं। यह चलन फिर से प्रचलन में लाना चाहिए यह स्थनीय रोजगार के साथ पर्यावरण के लिए भी अनुकूल था।

स्थानीय खानपान दिवस मनाने की जरूरत :

सूत्रों के अनुसार समृद्ध जैव विविधता में रहने वाले आदिवासी और वनवासियों को 160 बिना खेती वाली खाद्य फसलें मिलती हैं, वहीं आम लोगों को 30 प्रकार की खाद्य फसलें प्राप्त होती है। खाद्य सुरक्षा को सुनिश्चित करने के अंतहीन केंद्रित प्रयासों के बावजूद  पोषण सुरक्षा खंडित दिख रही है। हम सभी भारत के कुपोषण के मुद्दों के बारे में जानते हैं, यह अभी भी चिंता का विषय बना हुआ है, भले ही भोजन तक पहुंच बढ़ गई है। लोगों की पारंपरिक खाद्य को बहाल करके ही इस समस्या का समाधान किया जा सकता है। यही कारण है कि ये फूड फेस्टिवल जानबूझकर पोषण सुरक्षा और उनके आर्थिक महत्व की बात करते हैं। इस तरह के अभियान और खाद्य उत्सव निश्चित रूप से हमारे खाद्य विविधता को ऐसे समय में सामने लाते हैं जब औसत भारतीय सिर्फ चार से पांच प्रकार के अनाज और सब्जियों का उपभोग कर रहा है। नई पीढ़ी को इन सभी असिंचित खाद्य फसलों का वैज्ञानिक ज्ञान विकसित करने की आवश्यकता है, इसे सम्मान और गर्व की भावना के साथ अपना स्थानीय खानपान दिवस के रूप में मनाने की जरूरत है। जिसमें महुआ दिवस , कोदो कुटकी दिवस या अन्य कुछ जो उनके खानपान से जुडा हो।

 

उद्देश्य-

- नई पीढ़ी  स्थानीय फल, वनोपज और जड़ी-बूटियों व्  पोषक तत्वों की पहचान करेगी।

- उपभोग की आदतों को फिर से स्थापित करें और अधिक स्थानीय लेन-देन पर निर्भर करें

- स्थानीय अर्थव्यवस्था को बढ़ावा और उस प्रवाह में धन का संचार होगा

- रोजगार सृजन की विशाल सम्भावना

- पारिस्थितिकी और पर्यावरण को बड़े पैमाने पर लाभ होगा

- किसानों , बुनकर , ग्रामीण कारीगर, लघु व कुटीर उद्योग एवं अन्य हस्त शिल्प कारीगर को उचित मूल्य मिलेगा

 

इनका कहना है

हमें इस और प्रयासरत होने की आवश्यकता है। इसे जन जन तक पहुंचाने की जरूरत है। समस्या विश्लेषण सहित उचित स्थिति विश्लेषण प्राप्त करने की आवश्यकता है। बेहतर दृष्टिकोण लाने के लिए कई समान विचारधारा वाले संगठन, व्यक्तियों के साथ समूह चर्चा पर ध्यान केंद्रित करना होगा। मल्टी एक्टर प्लेटफॉर्म के साथ सहयोगात्मक दृष्टिकोण विकसित करने और समान विचारधारा वाले संगठन, व्यक्तियों के साथ नेटवर्किंग करने की आवश्यकता है।

सत्यसोभन दास, सामाजिक कार्यकर्ता, मण्डला


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